माल नहीं मान है वो सामान नहीं सम्मान है वो
दीपक के लौ के जैसे हर घर का अभिमान है वो
क्यों नरक की यातनाएं है उसको है सहनी पड़ती
क्यों व्यर्थ व्यथित सी बातों में सारा अपना जीवन जीती
क्यों लाख असंख्य दुक्खो का करती हैं पान है वो
माल नहीं मान है सामान नही सम्मान है वो
मां, बेटी, बहन, दादी का रोज वो श्रृंगार है करती
बुआ, मामी, चाची में कइयों की आशाएं भर्ती
कभी बन दुर्गा, कभी बन लक्ष्मी, कभी सरस्वती बन है जाती
इंद्र धनुष के रंगों जैसे हर घर को रोशन वो करती।
कैसे करूं निरादर उसका क्यों ये सब सहती है वो
माल नही मानव है वो भी सामान नही सम्मान है वो
करो प्रतिज्ञा सब संग मेरे सब, सब नया सबेरा लाओगे
नई किरण के निश्चल भावो संग तुम मान उसका फिर बड़ाओगे